अगर बडा बनना है तो -विचार को छोडो। केवल भाव को पकडो
हर आदमी गहरे में अपना ही स्वरुप है-आत्मस्वरूप शुद्ध निर्मल।माया के चक्कर में आकर वह अहंकार की मूर्छा से ग्रस्त होता है जिससे वह उसीके अनुसार बरतने लगता है।वह बडा बनना चाहता है।छोटा रहना दुखद प्रतीत होता है।यह बडे छोटे का खेल खूब चलता है।अहंकार रुप में बडे बनने की कोशिश से संघर्ष ही हाथ लगता है क्योंकि दूसरा भी यही कर रहा होता है।
तो क्या बडा बनने का कोई सुरक्षित उपाय नहीं है?
है।
वह मस्तिष्क को छोडकर हृदय में आये।विचार को छोडकर भाव को पकडे यथा मैत्री,करुणा,प्रमुदिता,कृतज्ञता आदि भावों को।
ये भाव शक्तिशाली हैं तथा इनकी साधना से ये प्रकट तथा विकसित होते हैं।
हमने नकारात्मक भावों को ही जाना है,सकारात्मक भावों का पता नहीं।नकारात्मक भाव के लिये कुछ नहीं करना पडता,सकारात्मक भाव के लिये बहुत कुछ करना पडता है।यह आसान न होने से लगता है यह असंभव है।
लेकिन जाननेवाले जानते हैं यह संभव है।वे सर्वत्र मैत्री भाव को अपने अनुभव में लाने की चेष्टा करने लगते हैं।
इसमें दूसरों का भी सहयोग मिलने लगता है क्योंकि अधिकांश लोग चाहते भी यही हैं।
एक बडा कारण है वे अपने विचारों, मान्यताओं के आवरण से ग्रस्त होते हैं जिसे बहुत सारे लोग नापसंद करते हैं।वह नापसंद व्यक्ति भी क्या करे,वह मजबूर है,उसे पता नहीं।ऐसे में हमारा सुदृढ मैत्री भाव ही उसकी मदद कर सकता है।इससे उसे बंधनों में बडी राहत मिलती है।उसे लगता है कोई है जो उसे समझता है।
यह समझना क्या है?यह समझना उसके हृदय को,उसके अस्तित्व, उसकी अंतरात्मा को समझना है जो वह वस्तुतः है।वह क्या सभी तरह की मान्यताओं से मिश्रित अहम्मन्यता थोडे ही है वह तो है चेतन अस्तित्व स्वयं।जिसे जानने के लिये कहा जाता है पता लगाओ तुम कौन हो?
तो सवाल अपने मैत्री आदि भावों का है।यह बहुतों को स्वीकृत होगा।बहुत थोडे लोग हैं जो मैत्रीभाव को ठुकरायें या उसे संदेह से देखें।
परंतु जो समझपूर्वक मैत्रीभाव में दृढ है उसे इससे कोई फर्क नही पडता।वह सबसे कहता है-तुम जैसे भी हो मुझे स्वीकार है।
यह प्रेम है।
किसी किसी साधक में यह नहीं भी हो सकता है।उन्हेंं प्रेम की,मैत्री की बातें अच्छी नहीं लगती।उनके लिये ध्यान है।उन्हेंं प्रेम के चक्कर में नहीं पडना चाहिए।
वैसे भी शाश्वत प्रेम के अनुभव में 'प्रेमी' नहीं रहता।प्रेमी अर्थात् अहंकार,कर्ता,मैं रुप मान्यता।यह कर्ता ही है जो प्रेम करता है और जो प्रेम नहीं भी करना चाहता।
नहीं करना चाहता तो न करे,ध्यान तो करे।ध्यान अंत में अहंकाररहित प्रेम में बदल जाता है।
अहंकाररहित प्रेम,ध्यानस्वरुप ही है।संबंधरहित है।इसलिए कहते हैं '-'प्रेम,संबंध नहीं, प्रेम स्टेट ओफ माइंड है।'
या कहें हृदय की स्थिति है।
द्रष्टा, दृश्य में बंटे मन के प्रयास पीडादायक हो सकते हैं,होते ही हैं भले ही वह प्रेम करे।कर्ताभाव से किये गये प्रेम में भोक्ताभाव होता है,संबंधित होने का भाव होता है।
उसमें "दूसरा" भी होता है।जहां "दूसरा" आया उपद्रव हुए बिना नहीं रहते।दूसरे का अपना अस्तित्व है,अहंकार है,मांगें हैं,सुविधा असुविधा हैं।इस बखेडे से बचने के लिये कई साधक अकेले रहना पसंद करते हैं।वे अकेले रह पायें,वृक्षों, पर्वतों, नदियों के सानिध्य में रह पायें तो उत्तम ही है।यह संभव न हो सबके साथ रहना पडे तो उपेक्षा की मानसिकता के साथ नहीं रहा जा सकता।तब उसे मैत्री,करुणा,प्रमुदिता, कृतज्ञता आदि भाव विकसित करने ही होंगे।इसमें नुकसान कुछ भी नहीं क्योंकि ऐसा व्यक्ति स्वतः "बडा" होता जाता है।उसने वह कर दिखाया जो दूसरे नहीं कर पाये।सब यही चाहते हैं।होता किसी से नहीं।अहंकार मौजूद रहता है जिससे एक दूसरे के विरुद्ध क्रोध,घृणा,घमंड के भाव बढते चले जाते हैं।चारों तरफ कुरुप ही कुरुप चेहरे नजर आते हैं।
ऐसे में सुंदर दिखने के प्रयास भी उन्हीं अशुद्ध भावों का अनुसरण करते हैं।नकली खुशी,नकली मुस्कान,नकली रंगरोगन।
आदमी बाहर से सुंदर दिखने का प्रयास करता है।उसकी भी प्रतियोगिताएं होती हैं।हकीकत में सुंदर कौन दिखता है या कौन अनुभव होता है-जो विनयी है,सरल है,निश्छल है,प्रेमपूर्ण है।
कहते हैं-
"प्रेम,आत्मा का सौन्दर्य है।"
जो लोग शरीर से स्वस्थ हों या न हों पर हृदय से स्वस्थ हैं उनम़े सुंदरता प्रकट हो जाती है।चेहरा,हृदय का अनुसरण करता है।चित्त जब चेहरे का अनुसरण करता है तब वह मन का,अहंबुद्धि का ही अनुसरण करता है।
परंतु हृदय के अनुसरण में अहंकार का,विचारों का,अपेक्षाओं-इच्छाओं का कोई काम नहीं होता।
यह पूरी तरह से निर्विचार, निरपेक्ष अवस्था होती है।
पढ़ने के लिए ,आपने अपने व्यस्त जीवन से मुझे अपना कीमती समय दिया, आपके लिए मैं अपना आभार प्रकट करता हूँ, आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।
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